कान्ता रॉय से संतोष सुपेकर की बातचीत
कान्ता रॉय से संतोष सुपेकर की बातचीत संतोष सुपेकर - समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत चुके हैं, लघुकथा को आप आज कहाँ पाती हैं? कान्ता रॉय – आश्चर्य होता है उन पचास सालों पर जो बीत चुके हैं| पचास साल कम तो नहीं होते है न! मेरे इस आश्चर्य करने के पीछे कई कारण हैं| समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी लघुकथा अपना प्रथम पायदान पार नहीं कर पाई} अब तक वह प्रथम चरण में ही अटकी हुई है| यह जरूर है कि लघुकथा को पहचान मिल गई| आज पाठक और लेखक दोनों लघुकथा और कहानी में फर्क समझने लगे हैं| कथा साहित्य में लघुकथा ने अपना स्थान अपनी पहचान बना तो ली है लेकिन यह सिर्फ अभी लेखकों और पाठकों तक ही सीमित है| पचास वर्ष आंदोलन के बीत जाने के बाद भी यह विश्वविद्यालय तक नहीं पहुंच पाई है| राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह अकादमी में गरिमापूर्ण तरीके से अपना स्थान नहीं बना पायी है| दिल्ली में सन 2016 में रचनापाठ का एक आयोजन हुआ भी लेकिन फिर उसे दुबारा नहीं बुलाया गया| इसके पीछे के कारणों को तलासना होगा| आखिर हम कहाँ और क्यों छूट रहें हैं! मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा जैनेन्द्र कुम...