नारी सशक्तिकरण की लघुकथाएँ : सुनीता प्रकाश
संपादक : सुनीता प्रकाश की प्रस्तुति
नारी अपनी अस्तित्व और सम्मान हेतु समाज में व्याप्त पुरुषवादी सोच से लड़ती है, चाहे भावनाओं के प्रबल बल से या संघर्ष की तेजोमय शक्ति से।
फादर्स डे
लेखक-पवन जैन
"जी,बच्चे के पिता का नाम?"
"क्यों, क्या जरूरत है पिता के नाम की?"
व्यंग्य से,"तो मालूम नहीं है?"
"मालूम क्यों नहीं है, माँ को ही बच्चे के बाप का नाम मालूम होता है।"
"तो फिर लिखवायें, या पक्का नहीं है।"
"आपकी मानसिकता आप के सवालों में दिख रही है।"
सकपकाते हुए, "जी नहीं,मुझे कोई मतलब नहीं।आप सिर्फ इसके पिता का नाम लिखवाइये।"
"क्यों लिखायें? आप मेरा नाम लिखे।"
"आपका नाम माँ के कालम में आ गया ,पिता के नाम का भी कालम है।"
"जो जिम्मेदारी नहीं उठा सकता उसका नाम क्यों ?"
"रिश्ते में पिता का नाम लिखना जरूरी है,तो नाट नोन लिख दूँ।"
तैश में ,"नाट नोन क्यों लिखोगे, वायलाजीकल बाप ही, बाप नहीं होता।आप दोनों कालम में मेरा ही नाम लिख लीजिए।
"जी अच्छा।"
"ऐसी बहुत सी माँयें है,जो कई कारणों से खुशी खुशी अकेले ही बच्चे की जिम्मेदारी उठा रही है।"
उत्तरदायित्व उठाने वाला ही बाप होता है मुझे गर्व है मैं ही इसकी माँ हूँ मैं ही बाप।"
हुकुम तो मानना होगा नहीं तो
लेखिका-आभा अदीब राज़दान
उसे तो बैड टी की आदत है।
वह घर का बड़ा बेटा है।
उसे साड़ी का पहनावा ही पसंद है।
वह जैसा कहे वैसा न हो तो उसे बहुत ग़ुस्सा आ जाता है।
वह तो बचपन से ही बहुत ग़ुस्सैल है, ज़रा सा तुम पर चिल्ला देता है तो मुँह यों फुलाने की तो कोई बात नहीं है।
तुम्हारी अम्माँ ने तुम्हें कुछ भी नहीं सिखाया।
सुनो तुम रसोई का नल बंद कर दो वह नहा रहा है न, यहां पानी खोलने से वहाँ बाथरूम का पानी धीमा आता है, इतना भी नहीं जानती हो।
उसे औरतों का ज़ोर से हँसना बिलकुल पसंद नहीं है।
वह थोड़ा पुराने विचारों का है।
उसे सिर्फ़ घर का खाना ही पसंद है।
वह कितनी भी देर में घर आए, तुम पहले उसे खिला कर ही खाना खाया करो, औरतों का पहले खाना खा लेना बहुत बुरी बात है, यह भी नहीं जानती ।
लड़का है हमेशा घर में तुम्हारे पल्ले से बंध कर तो बैठेगा नहीं।
ज़रा ठीक से तैयार होकर रहा करो, ऐसी ही शक्लें होती हैं तभी आदमी जात बाहर मुँह मारते हैं।
अब तुम तो कुछ ज़्यादा ही तैयार हो गई हो, शरीफ़ घरों की बहू बेटियाँ इतना तैयार नहीं होती हैं।
मर्द है शाम को थका होता है थोड़ी पी लेता है तो कौन सा हर्ज है।
औरत को तो हर हाल निभाना ही पड़ता है।
राजा भी अपनी बेटी को घर में बिठा कर नहीं रख सकता है।
अब वह नहीं यही तुम्हारा घर है।
तुम्हारे घर से कभी भी कोई भी मुँह उठाए चला आता है, यह कोई तरीक़ा है।
तुम्हारी तो न सूरत है न शक्ल है फिर भी ..........
तलाक़ शुदा कल्याणी वीमेन हॉस्टल में अपने कमरे में बैठी लघुकथा लिख रही थी, शीर्षक था, हुकुम तो मानना होगा नहीं तो...............।
शब्दों के मायने
लेखिका-रचना अग्रवाल गुप्ता
" रजनी के बापू! दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो!, अरे रमेश कुछ कर, देख न तेरे बापू ये क्या करने जा रहे है! कुछ कर, तोड़ दे ये किंवाड़!"
रामेंद्र जी को बहुत बड़ा आघात लगा था, खुद के किये का पश्चाताप उन्हें इस कदर झकझोर रहा था कि वो पलायन पर उतर आए और अपने जीवन को ही समाप्त करना चाहा।
बात उस वक़्त की है जब उनका 4 साल का रमेश एक भयंकर रोग से ग्रसित हो गया था और उनकी आर्थिक स्थिति इलाज की इजाज़त नही दे रही थी, तब जमींदार से इलाज के पैसों के बदले उनके एक आंख से अपाहिज बेटे की शादी अपनी बेटी रजनी से करने का वचन दे दिया था, कोर्ट के कागज पर अंगूठा भी लगवा लिया था जमींदार ने।
आज जब रजनी शादी के लायक हो गयी तो ज़मींदार के घर से शादी का फरमान आ गया।
पर उनका बेटा, वो तो अब किसी गुंडे से कम नही रहा, न पढ़ाई लिखाई न खुद कमाने की औकात।
और वहीं रजनी पढ़ी लिखी होनहार, हर काम मे निपुण और सुंदर थी।
अब ऐसे में रामेंद्र खुद को अपनी बेटी का कुसूरवार मान कर खुदकुशी करने जा रहा था।
इतने में रमेश ने जोर से झटका देकर दरवाज़ा तोड़ा और अपने बापू को बांहों के भींच लिया।
"ये तुम क्या करने जा रहे थे बापू!" रजनी और उनकी पत्नी ने भी अंदर आकर एकदम से उनको थाम लिया और प्यार और दर्द भरी फटकारे लगाने लगे।
" मुझे माफ़ कर दे बिटियां, तेरा जीवन बर्बाद कर चुका हूँ आज से 20 साल पहले। ये देख ये कोर्ट के कागज पर मेंर अंगूठा जिसपर जमींदार के काने बेटे से तेरे ब्याह का वचन दिया था।"
" मैंने देखा है बापू!" पर रजनी आश्वस्त और शांत सी दिखी।
"कुछ बोल बिटिया, कोस मुझे, गालियां दे"
रामेंद्र जी एकदम रजनी के पैरों पर गिरने लगे तो रजनी ने उन्हें उठाते हुए उनकी आंखें पोंछी और पानी का गिलास लाकर दिया।
"बापू इसमे लिखा है कि,जब जमींदार बाबू का इकलौता सुपुत्र और मैं, यानि रामेंद्र जी की बेटी बालिग हो जाएंगे तब दोनो का ब्याह कर दिया जाएगा, और इसी शर्त पर वो आपको रुपये उधार देंगे।" रजनी वह कागज़ पढ़ने लगी।
" भैया इसमे लिखा है जमींदार बाबू का 'सुपुत्र'! पर उनका बेटा इस गांव का एक बहुत बड़ा गुंडा है, और एक वकील होने के नाते मुझे यह खूब पता है कि इस कोर्ट के कागज़ से कैसे निपटना है।"
सभी एक दूसरे को देखने लगे पर थोड़ी राहत तो जरूर थी।
दीदी भई कोतवाल
लेखिका-मंजू सक्सेना
"अर्रे..छम्मक छल...",अनु के घर का दरवाज़ा खुलते ही किसी मनचले ने छींटाकसी की पर बाकी के शब्द उसके गले मे ही अटक कर रह गये।अनु पुलिस की वर्दी मे थी.. हाथ मे पुलसिया डंडा और भारी बूट.. ...और वह जैसे जैसे आगे कदम बढ़ाती गई गली मे लगी शोहदों की कतार सहम कर पीछे खिसकती गई।
मन ही मन मुस्कुरा उठी अनु....कल तक जिस गली मे इन मनचलों ने उसका बाहर निकलना हराम कर रखा था आज उसे पुलिस की वर्दी मे देख सबको जैसे साँप सूँघ गया था।
एक साल पहले पिता की मृत्यु के पश्चात वह माँ के साथ अकेली रह गई थी। पिता फैक्टरी मे बर्कर थे। दो बड़ी बेटियों की शादी के बाद उनके पास केवल उनका वेतन बचा था। उनकी मृत्यु ने उसे भी छीन लिया। बी.ए. पास अनु ने नौकरी के लिए बहुत हाथ पैर मारे पर हर आफिस वाले को उसके सर्टिफिकेट से ज़्यादा उसकी शारीरिक उपलब्धियां गिनने मे रुचि थी।तभी एक दिन उसकी नज़र पुलिस मे महिला कान्टेबिल की भर्ती के बोर्ड पर पड़ी। उसका चयन हो गया और आज तीन माह की ट्रेनिंग के बाद उसे वर्दी मिल गई।
"इधर आओ",गली के नुक्कड़ पर पंहुच कर उसने पीछे पलट कर जिसे आवाज दी वह इन लफंगों का लीडर था,
"जी.....दीदी...",रोज़ वाले किस्म किस्म के आशिकी संबोधन भक्क से उड़ गये थे ...दीदे झुके थे...हाथ जुड़े थे...
"आज से इस मुहल्ले की हर लड़की की इज़्ज़त की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है",अनु ने डंडे की मूठ पर हाथ फिराया..
"बिल्कुल..... दीदी...वह सब हमारी बहिने हैँ....." ,बदहवासी मे बोलते हुए उसने अपने साथियों पर नज़र डाली,"तुम लोगों को और कोई काम नहीं है .....सब अपने घर जाओ...मैं भी जाता हूँ"।
वह पैदल ही थाने की ओर चल दी। आज उसकी ज्वाइनिंग थी। पीछे से स्कूल जाती लड़कियों के झुंड मे पहली बार दबी दबी हँसी गूंज उठी थी ....'दीदी भयीं कोतवाल अब डर काहे का......।'