लघुकथा क्या है : कांता रॉय
कई दिनों से बड़ी अजब-गज़ब पोस्ट पढने को मिल रहीं है! पिछले सवा सौ साल की समृद्धियों को समेटती इस विधा पर इतना संदेह, आखिर क्यों?
इतने शोध लोगों ने किये है इस विधा पर, अलग-अलग राज्यों में इतने सम्मलेन, इतने सम्मान, इतनी पत्र-पत्रिकाएं जो दसकों से विधा के विकास में अपना सहयोग दे रही है उन सबको अनदेखा कर इस तरह की बातें!
कहीं इन बातों के पीछे उनकी विधा के प्रति अज्ञानता या पाठन का अभाव तो नहीं? बात शायद बहुत बड़ी कह गयी हूँ, लेकिन मजबूर हुए हम मनन के लिए.
खैर, आज के सन्दर्भ में इतना ही कहूँगी कि लघुकथा एक स्थापित विधा है. इसका अपना एक विराट दायरा है. इस पर अब तक बहुत काम हुए हैं और आगे भी ये अपनी समृद्ध परम्परा को बनाए रहे इसके लिए लगातार काम होते रहना बेहद जरूरी है.
हमारे साथियों के लिए लघुकथा सन्दर्भ में कुछ बातें प्रस्तुत है जो समझाती है कि लघुकथा क्या है!
लघुकथा-विधा पर काम करते हुए अब तक जितना मैंने जाना है कि हिन्दी गद्य साहित्य की यह सबसे तीक्ष्ण कलम है, जिसमें कम से कम शब्दों में एक गहरी बात कहना होता है जिसको पढ़ते ही झटके से पाठक मन चिंतन के लिए उद्वेलित हो जाये।
राजनैतिक, सामाजिक व पारिवारिक परिवेश में सूक्ष्म से सूक्ष्म विसंगतिपूर्ण मानसिकता को चिंहित कर वास्तविकता के धरातल पर तर्कसंगत तथ्यों के सहारे कथ्य को उभार देना ही लघुकथा का उद्देश्य है। अर्थात लघुकथा विसंगतियों को सूक्ष्मता से पकड़ने की चीज़ है। सूक्ष्म कथ्य, एक विसंगतिपूर्ण मानसिकता लघुकथा में उभरकर आना चाहिये।
लघुकथा के लिए विसंगतिपूर्ण मनोदशा का निर्वाह करना होता है।
संस्मरण, चुटकुला, बोधकथा इत्यादि लेखन से इतर लघुकथा गम्भीर बात को लिखने की चीज़ है। विसंगतियों पर तंज कसते हुए समाज में संदेश देने हेतु ही इसको लिखा जाता है।
विसंगतियों को देख कर जब रचनाकार के मन के अंदर कुलबुलाहट बढ़ती है तो वह कलम उठाता है कुछ कहने के लिए। दरअसल मन की उथल पुथल जब पीड़ा के हद तक पहुँचती है तभी रचना साकार होती है।
लघुकथा विधा के बारे में गहराई से चिंतन करेंगे तो पायेंगे कि यह इकहरी भाव को कथ्य बनाकर यथार्थ का बोध कराने वाली विधा है।
#यथार्थ_बोध क्या है?
यथार्थ यानि वह सच जो विश्वसनीय हो। जो अपवाद न हो। सहज मानसिकता जिसके कारण समाज में विसंगतियाँ निर्मित होती है।
दरअसल लघुकथा साधारण बात को असाधारण तरीके से कहने की चीज़ है।
लघुकथा अपवादों को लिखने की विधा नहीं है। अर्थात कोई असाधारण बात नहीं लिखना है, यानि सत्य-घटना या आँखों-देखी नहीं लिखना है बल्कि यथार्थ-बोध को चिन्हित करती हुई क्षण विशेष को लिखना होता है। यथार्थ को चिन्हित करते हुए तथ्यों को आधार बना कर आप लघुकथा के लिए प्रयास करें।
ऐसी बात जिस पर सब विश्वास कर सकें, विश्वसनीयता के साथ आपको कल्पना गढ़ना है। जो उद्देश्यपरक हो। जिसमें सामाजिक हित के लिए कथ्य प्रेषित हो।
गद्य साहित्य की करीब १६ विधाओं में लघुकथा विधा एक है। सभी विधाओं का अपना एक अनुशासन और निर्वाह होता है ताकि विधा अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखे। उदाहरण स्वरूप दोहा और शेर पद्य विधा के दोनों स्वरूप दो पंक्तियों में ही पूरी बात कहना लेकिन अपने अपने अनुशासन के कारण ही दोनों अलग और स्वतंत्र विधा है। ठीक इसी तरह लघुकथा का अपना एक अलग मिजाज है जो तंजदार है, इसके अंतिम पंक्तियों में ही कथ्य का चरमोत्कर्ष निहित होता है। लघुकथा का अंत ऐसा हो जहाँ से एक नयी चिंतन निकलकर आये और एक नयी लघुकथा की शुरुआत हो सके।
इसलिए छोटी कहानी, लघु कथा, इत्यादि को लघुकथा कह देना विधाओं में घालमेल करना सही नहीं है। एक से अधिक #कालखंड को लेकर कहानी बुनी जाती है लघुकथा नहीं।
#लघुकथा_भूमिका विहीन विधा है जिसमें एक विशिष्ट कालखंड में चिन्हित विसंगतिपूर्ण कथ्य का निर्वाह यथार्थ के धरातल पर किया जाता है। बिना भूमिका के, घटनाक्रम के माध्यम से ही #कथा_तत्व का समावेश करना होता है। जो भी कहना है वो पात्रों के माध्यम से ही कहना होता है अन्यथा लेखकीय-प्रवेश होने का भय होता है। #लेखकीय_प्रवेश की जहां तक बात है वो तो कहानी विधा में भी मान्य नहीं है। ख़ास कर लघुकथा में जो भी कहना-सुनना होता है वो पात्रों के माध्यम से ही कहना होता है. निष्कर्ष तक पहुँचाती, बोधात्मक कथाएँ, उपदेशात्मक व प्रेरणादायक कथाएँ,जातक कथाएँ सहित ऐसे कलेवर वैदिक काल से ही हमारे साहित्य का हिस्सा रहा है।
जब इतने स्वरूप कथाओं का पहले से ही था तो लघुकथा-विधा की विकास की जरूरत क्यों पड़ी? जरा सोचिए, सोचेंगे तो पायेंगे कि लघुकथा का विकास कहानी व उक्त कथाओं से इतर विसंगतियों से आहत, छटपटाहट को जाहिर करने जैसी एक अलग कथ्य के निर्वाह जो कम शब्दों में गम्भीर घाव करने की मद्दा रखती हो को कहने के लिए हुआ है।
इसका अपना स्वतंत्र कलेवर है और इसके निर्वाह के लिए हर रचनाकार जो विधा-सम्मत प्रयास कर रहें हैं सचेत रहना चाहिये।
#कथ्य के आस-पास ही पूरी लघुकथा बुनी होनी चाहिये। लघुकथा और शब्दों की मितव्ययिता के लिए कहा गया है कि लघुकथा एक शब्द अधिक व कम होने को बरदास्त नहीं कर सकती है। यह नट का रस्सी पर चलने की कला जैसी विधा है।
आपको अपने उद्देश्य के लिए कथानक के कमान पर यथार्थ को कस कर सीधे निशाना साधना है जो पहली पंक्ति से छूटे और सीधे कथ्य पर जाकर लगे।
लघुकथा एक ही कालखंड यानि एक ही क्षण में यथार्थ के धरातल पर घटित घटना के जरिए कथ्य को कहने की विधा है। ऐसे में जब दो या अधिक कालखंड को पकड़ कर कथ्य कहने की कोशिश की जाती है तो कालखंड दोष आ जाता है।
कालखंड दोष के कारण ही एक रचना छोटी होने के बावजूद लघुकथा के बजाय वह कहानी बन जाती है।
लघुकथा लेखन एक साधना है। ये कोई सामान्य और सहज लेखन नहीं है। यह तीरअंदाजी या यूँ कहना भी अतिशयोक्ति ना होगा कि ये निशानेबाजी की कला सीखने जैसी ही चीज़ है।
जैसे निशानेबाजी में पारंगतता, लगातार साधने से या सतत अभ्यास से ही संभव है, ठीक उसी प्रकार लघुकथा लेखन भी साधने की विधा है।
तीर चलाने के लिए निशाना लगाया और स्वंय को एकाग्र किया। तीर चलाया, ओह,ये क्या लक्ष्य से जरा करीब जाकर रह गया, यानि चूक गये।
फिर से लक्ष्य साधा और फिर से .....।
हर बार,बार-बार लक्ष्य साधिये पूरे जतन से। ये अभ्यास की चीज़ है।
तकनीकों को समझते हुए लिखिए या लिखते हुए तकनीकों को जानिए। बस एकाग्र चित्त होकर साधिये। एक दिन आप लक्ष्य भेदन जरूर करेंगे इसकी मुझे आशा है।
बलराम अग्रवाल, रामेश्वर काम्बोज हिमाशु, सतीश राज पुष्करणा, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी,रूप देवगुण, महाराज कृष्ण जैन, शकुन्तला किरण, सुभाष नीरव, मधुदीप गुप्ता, श्याम सुंदर अग्रवाल, बलराम, पुष्पा जमुआर, मिथिलेश कुमारी, सहित और भी बहुत सारे लघुकथाकारों के कई शोधात्मक आलेखों को पढ़कर मैंने कुछ मानकों को बिंदुवत एक साथ रखा है। जो इस प्रकार है।
सार्थक लघुकथा के प्रमुख मानक - तत्व इस प्रकार है :--
१ - कथानक- प्लॉट , कथ्य को कहने के लिये निर्मित पृष्ठभूमि ।
२- शिल्प - क्षण विशेष को कहने के लिये भावों की संरचना ।
३- पंच अर्थात चरमोत्कर्ष - कथा का अंत ।
४- कथ्य - पंच में से निकला वह संदेश जो चिंतन को जन्म लें ।
५- लघुकथा भूमिका विहीन विधा है।
६- लघुकथा का अंत ऐसा हो जहाँ से एक नई लघुकथा जन्म लें अर्थात पाठकों को चिंतन के लिये उद्वेलित करें।
७- लघुकथा एक विसंगति पूर्ण क्षण विशेष को संदर्भित करें ।
८- लघुकथा कालखंड दोष से मुक्त हो ।
९- लघुकथा बोधकथा ,नीतिकथा ,प्रेरणात्मक शिक्षाप्रद कथा ना हों ।
१०- लघुकथा के आकार -प्रकार पर पैनी नजर ,क्योंकि शब्दों की मितव्ययिता इस विधा की पहली शर्त है ।
११- लघुकथा एकहरी विधा है ।अतः कई भावों व अनेक पात्रों का उलझाव का बोझ नहीं उठा सकती है।
१२- लघुकथा में कथ्य यानि संदेश का होना अत्यंत आवश्यक है।
१३- लघुकथा महज चुटकुला ना हों ।
१४- लेखन शैली
१५- लेखन का सामाजिक महत्व
सभी बातों का सारांश ये है कि इन उपरोक्त बातों को ध्यान में रख कर ही लघुकथा लिखी जानी चाहिए.अर्थात एक लघुकथाकार को इन मानकों को साधना आना ही चाहिए!
#आलोचना_और_साहित्य सनातन काल से साहित्य में वर्तमान-लेखन पर विविध प्रश्नों को उठाया जाता रहा है। जब जिस काल में लेखन हुआ है आलोचनाएँ भी हुई है। कमजोर लेखन विलुप्त हुई और विधा-सम्मत संजीदगी से हुए प्रयासों ने दशकों से सदियों तक का रास्ता पार किया है। इन बातों को समझने के लिए आपको हिन्दी साहित्य के वैदिक काल से लेकर रीतिकाल, भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के सफर को देखना होगा।
आलोचनाएँ अंकुश लगाती है साहित्य के बिखराव पर। संचेतना जगाने के लिए आलोचनाएँ बहुत जरूरी भी है ताकि अभिव्यक्ति के नाम पर मृत रचनाओं के बोझ से साहित्य बोझिल ना हो।
कान्ता रॉय
निदेशक, लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल
सम्पर्क : 54\A, सेक्टर - C,
बंजारी, कोलार रोड, भोपाल (म.प्र.)- 462042
मो. 9575465147,
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