लघुकथाओं में जीवन का राग है, आदर्श है
लघुकथाओं में जीवन का राग है, आदर्श है - कान्ता रॉय
कथा-साहित्य की प्रमुख उपन्यास, कहानी और लघुकथा, तीन विधाओं मेंलघुकथाका उद्भव वैदिक काल से
है। वेदों, उपनिषदों में प्रसंगवश कही गयी
कथाएँ जो व्यक्तित्व निर्माण के तहत गढ़ी जाती रही, सुनाई जाती रही है वे ही
समयानुरूप अपना स्वरूप बदलती हुई विकसित होती हुई वर्तमान की लघुकथा के रूप में
विद्यमान है। ‘साहित्य कलश’ पत्रिका द्वारा लघुकथा विशेषांक निकलना, सारस्वत मन से किया गया लघुकथा संदर्भ में एक बड़ा
महत्वपूर्ण काम है| पत्रिका के संपादक
श्री सागर सूद संजय जी द्वारा मुझसे इस
कार्य को करवाने के लिए भरोसा करना दरअसल मेरे लिए भी ये परीक्षा की घड़ी है
क्योंकि लघुकथा का विस्तार उसकी जिस सूक्ष्मता में निहित है उस सूक्ष्म-व्यापकता
को सार्थक-रूपदेना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है|
लघुकथा पर जब भी कोई काम किया जाएगा तो ‘साहित्य कलश’ के इस लघुकथा विशेषांक का जिक्र अवश्य होगा
जिसमें लघुकथा में वर्त्तमान के साथ परम्परा भी निहित है|
सवा सौ साल पहले से अर्थात शुरू से शुरुआत करते
हुए जब लघुकथा पर बात करते हैं तो पहली हिंदी लघुकथा का जिक्र करना आवश्यक होगा|
हिन्दी लघुकथा-साहित्य की पहली
लघुकथा तो भारतेंदु हरिश्चंद की'अंगहीन धनी' को ही होना चाहिए था लेकिन'परिहासिनी' का'संकलन' के रूप में पाया जाना और उनमें
संकलित रचनाओं का लेखन काल और मौलिकता पर साक्ष्य की कमी ने'एक टोकरी भर मिट्टी' 1901 ई.'छत्तीसगढ़ मित्र' में प्रकाशित माधवराव सप्रे को
यह स्थान दिया गया है।
समाज को चेताने के लिए, उसकी जड़ता को तोड़ने के लिए, भारतेन्दु हरिश्चन्द की कलम से
जो आग रोष बनकर
‘बात’ को कहने का माध्यम तलाशती ‘चीज’ बनकर सामने आयी थी, वो सन 1901 ई. में माधवराव सप्रे द्वारा
पहली लघुकथा के रूप में ‘मिटटी भर टोकरी’ के रूप में प्रकट हुई।
व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक रोष निरंतरता से माखनलाल चतुर्वेदी, जगदीश चन्द्र मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बक्षी, प्रेमचंद्र, जयशंकर प्रसाद,विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, रामनारायण उपाध्याय,अयोध्या प्रसाद गोयलीय, रावी, उपेन्द्रनाथ अश्क सहित अनेकों
साहित्यकारों द्वारा लघुकथा के रूप में कथ्य रूपी बात का निर्वहन होता हुआ, सत्तर-अस्सी के दशक की अगली
पीढ़ी उन युवा रचनाकारों के हाथों में आता है जो लघुकथा-विधा के स्थापत्य में
सहभागी बनते हैं। इनमें रमेश बत्रा,जगदीश कश्यप, शंकर पुणताम्बेकर,कमलेश भारतीय, बलराम अग्रवाल,मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, रामकुमार आत्रेय, पूरण मुद्गल, रूप देवगुण, कमल चोपड़ा, कमलेश्वर, भागीरथ, बलराम, सतीशराज पुष्करणा, श्यामसुंदर अग्रवाल, विक्रम सोनी, मधुकांत, मधुदीप, रामयतन यादव, श्यामसुंदर दीप्ती, सुकेश साहनी ,रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, चित्र मुद्गल, महराज कृष्ण, उर्मी कृष्ण,विष्णु नागर, अशोक भाटिया, सुभाष नीरव, सतीश दुबे, कुंवर प्रेमिल ,पारस दासोत, प्रबोध कुमार गोविल, माधव नागदा, डॉ राम कुमार घोटड,पृथ्वीराज अरोड़ा,अशोक जैन,असगर वजाहत, सूर्यकांत नागर, सतीश राठी, मालती बसंत सहित करीब 150 से अधिक लघुकथाकार मुख्यरूप से
सक्रीय रहे थे। इन वर्षों में लघुकथा विधा पर केन्द्रित अनेकों पत्र-पत्रिकाएँ
प्रकाशित होने लगी थी।इनमें भोपाल के कृष्ण कमलेश जी का नाम मुख्य रूप में सामने
आता है जिन्होंनेवास्तव में नई पीढ़ी को प्रोत्साहन देकर इस विधा के निर्माण में
शोधात्मक कार्यों को यूनिवर्सिटी में पहुंचाया। लघुकथा के मानक गढ़ने और उचित
मापदंड देने के लिए सुश्री शकुंतला किरण को प्रेरित करते हुए, उनको लघुकथा पर पहला पी.एच.
डी. करने का माध्यम बनाया। सुश्री शमीम शर्मा द्वारा इसी शोध कार्य को आगे बढ़ाया
गया। बलराम अग्रवाल की ‘हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान’ भी इसी शोधात्मक कार्यों की
कड़ी में से एक है। अब तक लघुकथा विधा पर कई शोध हो चुके हैं और वर्तमान में भी हो
रहें हैं।
अशोक भाटिया का कहना है कि “वे सिद्धान्त, जो रचना को बेहतरी की ओर न ले
जाएँ या व्यावहारिक न हों–व्यर्थ होते हैं। सिद्धान्त रचना में से जन्म
लेते हैं। यदि उन्हें बाहर से लागू करने का प्रयास किया जाएगा तो या तो रचना नहीं
रहेगी या सिद्धान्त नहीं रहेंगे।“
कहीं-कहीं लघुकथाओं के प्रारूप के स्तर पर हम
पाते हैं कि वह अपने दायरे को तोड़ने लगती है। इस सन्दर्भ में मेरा मानना है कि कथा
के प्रथम पंक्ति से लेकर तीव्र चरमोत्कर्ष तक कथ्य की सफलता के लिए सृजनकर्ता को
अध्ययन की दृष्टि से स्वयं ही अनुसंधान करना होगा।लघुकथा की आरम्भ की पंक्तियों के साथ तारतम्य बिठाता लघुकथा का अंत
हो तो कथ्य उठान पा जाता है ठीक उसी तरह जिस तरह पद्य में कुण्डलिया छंद का
प्रारूप है|
मेरा निजी मानना है
कि पद्य-विधा में गजल व छंद-साहित्य की तरह ही लघुकथा लेखन का अपना अनुशासन है और
यह अनुशासन ही इसके तेवर को पकड़ कर रखता है।
जिस तरह शेअर या दोहा
छंद की दूसरी पंक्ति में जो कथ्य होता है उसको संप्रेषित करने के लिए ही पहले
मिसरे या पहली पंक्ति का ताना-बाना होता है उसी प्रकार लघुकथा में अंतिम पंक्ति को
यानि कथ्य को जिसे हम सन्देश भी कहते है उसी को कहने भर के लिए कथा बुनी जाती है|
सम्बंधों के स्वरूप सदा से बदलते रहे है और आगे
भी बदलते रहेंगे क्योंकि ग्रहण और त्याग चिंतन-धारा का इतिहास है, इसलिए शब्द और उनके अर्थ
लघुकथा को विस्तार देता है। बलराम अग्रवाल कहते हैं कि, “शब्द के अर्थ बदलते हैं
क्योंकि हमारा ज्ञान बदलता है। शेक्सपीयर की रचनाओं में धरती, पानी, हवा और आग तत्त्व हैं, ठीक जैसे तुलसीदास के यहां
क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर हैं। इसलिए रचना
के साथ-साथ शब्दों को भी एक खास ऐतिहासिक संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है।“
व्यस्त दिनचर्या होने के कारण
अब समय इंस्टैंट डोज देने और लेने का है। जिस तरह भोजन की थाली सिमट कर डिनर प्लेट
में आ गयी, उसी तरह परम्परागत लम्बी-चौड़ी
कहानी में समय खपाने के बजाय पाठक अब 'टू द पॉइंट' कहने-सुनने का आदी हो रहा है।
और यही नहीं बल्कि'टू द पॉइंट' में ही उसे चरित्र और परिवेश से जुड़ा पूरा
संदर्भ भी चाहिए जिसे लघुकथा अपने कलेवर में पूरी तरह समेटे हुए है। अर्थात
कथात्मक साहित्य में ‘लघुकथा’ अपने वजूद के साथ अब प्रथम पंक्ति में मजबूती से
खड़ी दिखाई देती है।
हम सब जानते हैं कि वर्तमान में मानव बुद्धि भौतिक
साधनों द्वारा यांत्रिक बन चुकी है| वह बाह्य रूप में जो देखती है, उसी के बारे में सोचती है| और ये सोचना तभी सार्थक होगा जब
सोच में... चिंतन में... वो समर्थवान होगा| अक्सर भोगे हुए पल को, जीवन के यथार्थ को अपनी रचना के
माध्यम से लेखक उद्घृत करता है| हमारा भोगा हुआ पल कैसा भी हो सकता है, चाहे स्वयं पर गुजरे या हमारे
अपनों पर गुजरी हुई हो या देखी-सुनी हुई| इंसान दैनिक जीवन में पल-प्रतिपल अच्छे-बुरे
अनुभवों से गुजरता रहता है| अवचेतन मन में अच्छे-बुरे अनुभव डाटा बनकर अलग-अलग खानों में
जाकर जमा हो जाते हैं और महीनों, बरसों बाद, जैसे ही इससे जुड़ी कोई घटना या
विषय या चित्र, आँखों के सामने से गुजरता है
जेहन में एकदम से उस चित्र से जुड़ी बातें कौंध जाती है| जैसे कि आप अपने मित्र से मिलते
है, हाल-समाचार पूछते हैं, और जब वह महंगाई पर बात करने
लगता है, सीमित वेतन में पूरा महीना काटने
की जद्दोजहद, उलझन आपसे बांटता है तो, उस वक्त अचानक आपको अपनी आर्थिक
तंगी से जुड़ी हुई तकलीफें भी याद आने लगती है| आपके जेहन में उससे जुड़ी
समस्याएं हठात सामने आने लगेंगी| उसी वक्त संभावना बनने लगती है नव सृजन की| जिस प्रकार कौंध रूपी चिंतन, मित्र रुपी बाहरी व्यक्ति के
संपर्क में आने से जागती है, ठीक उसी प्रकार हमारे मन-मस्तिष्क को, विषय या चित्र को देखने, पढ़ने के पश्चात भी कथ्य रूपी
कौंध की प्राप्ति होती है|
चिंतन की कार्यप्रणाली मंद और धीर भी है और
बिजली-सी कौंध भी| मन में आये विचार कभी अधूरे रह जाते हैं, तो कभी वे हाथ से छूटते नजर आते
हैं, लेकिन भविष्य में किसी भी बात को
देख-सुनकर हठात वही हाथ से छूटे हुए विचार, कौंध बनकर लघुकथा के रूप में
अपना आकार ग्रहण कर लिया करते हैं|
आज का युग यथार्थवादी युग है, क्योंकि अब काल्पनिक निष्क्रिय
आदर्श की पैरवी पाठकों को मंजूर नहीं। वह जमीनी तौर पर प्रगति को समर्थन करता है।
वर्तमान में पाठक अपने आस-पास जो देखता-सुनता है उसी से जुड़े साहित्य को पढ़ना चाहता
है। वह सामाधान के लिए सम्भावनाएँ तलाश करने के साथ ही नयी परम्पराओं को स्थापित
करना चाहता है। आज आतंकवाद से भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व सतर्क होकर सोचने पर
विवश हो
रहा
है। ऐसे विध्वंसक प्रवृत्तियों से निपटने के लिए वर्तमान समय काल में लघुकथा विधा
का महत्व महसूस किया जा रहा है। लघुकथा का उद्देश्य संवेदनाओं की गहन अनुभूतियों
का स्थापन है। विसंगतियों के आधार पर सरल, सुबोध तथा भाव-व्यंजना से
युक्त अपने कथ्य में सद्वृत्तियों की स्थापना करने का उद्देश्य ही लघुकथा है।
लघुकथा का कलेवर जीवन का
यथार्थ है, इसी कारण लघुकथा के कथ्य में
यथार्थ का महत्वपूर्ण स्थान है। साहित्य में यथार्थवाद पर जब भी बातें की जाती हैं
तो दो नामों का जिक्र महत्वपूर्ण हो जाता है, 1.मार्क्स2. फ्रॉयड
मार्क्स कहते हैं कि साहित्य
वही सच्चा है जो युग की वास्तविकता को लिखे। फ्रायड ने मानव मन की विचित्रताओं का
रहस्योद्घाटन करने पर यथार्थ प्रणाली को अपनाया।
जहाँ उच्च शिक्षित वर्ग की
अपनी जटिलताएँ हैं वहीं मध्यम वर्ग हताश होकर विभिन्न मानसिक द्वंद्वों
से जूझ रहा है। कमजोर वर्ग की महत्वाकांक्षाएँ भी अब करवट बदलने लगी है अर्थात
वहाँ से भी अधिकारों के लिए उठता स्वर कोलाहलों में तब्दील होकर सड़कों पर आ खड़ा
हुआ है।
लघुकथा की बुनावट में स्वप्न
से इतर, विसंगतियों के बीच अपने अनकहे
में उपस्थित कथ्यों के सहारे आदर्श का स्पंदन देने में पूर्ण रूप से जो सफल है, वहीँ कालजयी एवं सार्थक
लघुकथाएं हैं। कथ्य-दर-कथ्य पुस्तक में भावानुभूतियों को आधार मिलना, में विशेष दृष्टि होना जो
अंधानुकरण पर कुठाराघात करे।
अतृप्त इच्छाएँ नाना रूप में
हमारे समाज में व्याप्त है| कामना पूर्ति के नित नए साधन इजाद किए जा रहे हैं, फिर भी इच्छाएं रहस्यमय तरीके
से अपनी सत्ता कायम किए हुए हैं| आदि काल से अब तक में जितने भी विकास सामने दिखाई
देता है, सब के पीछे सुख की तलाश की
छटपटाहट है, जो मन को सदा आकुल-व्याकुल
करती रही है| विश्व के इस प्रगति के वेग में
जहाँ ऊँचे-ऊँचे अपार्टमेंट्स बन रहे हैं, मल्टीनेशनल कंपनियों का वजूद बढ़ता जा रहा है, गाँव शहर में तब्दील होते जा
रहे हैं, खेत विलुप्त हो रहे हैं, कुँए के मुंडेर विलुप्तता के
कगार पर पहुंच गए, घर के घाट नदी के पास सामान्य जनजीवन से कोसों दूर सिर्फ
नौका-विहार और पर्यटक स्थल, पिकनिक स्पॉट बन कर रह गए हैं| ऐसे में चिंतनशील लेखक अपनी
वेदना को स्वर देने के लिए कराह उठता है|
विसंगतियों को मुखरित करते हुए
जब वह चेतता है तो पाता है कि जड़ रहने पर रूढ़िवादिता का प्रकोप बढ़ता है| इसी जड़ता को तोड़ने के लिए साहित्यिक परिप्रेक्ष्य
में समग्रता के साथ ‘साहित्य कलश’ त्रेमासिक पत्रिका, पटियाला, पंजाब लघुकथा विशेषांक के लिए संकल्पित हुई है|
पूरे हिन्दुस्तान के विभिन्न कोनों, सुदूर इलाकों से लेकर अंतरराष्ट्रीय फलक तक से
लघुकथाकार इस विशेषांक के माध्यम से इस पुस्तक में अपनी-अपनी सशक्त लघुकथाओं को
बौद्धिक क्षमता के साथ नवीन दृष्टिकोण को विचार के रूप में ‘कथ्य’ का
जामा पहना कर सामाजिक बदलाव में मजबूत भूमिका निभा रहें है|
देश-विदेश के 150 से ऊपर लघुकथाकार इस पुस्तक में पूरे दमोखम से
अपनी लघुकथाओं
के साथ शामिल है|
बदलते समय और परिवेश में साहित्यकारों में भी
अलग-अलग विधागत रूझानों में परिवर्तन देखने को मिलता है। वर्तमान काल वैश्वीकरण के
फलस्वरुप संधि काल से गुजर रहा है। टूटे संयुक्त परिवार, बिखरे एकल परिवार। छोटा परिवार अब सुखी परिवार की
जगह रार-तकरार में परिवर्तित हो दुखी परिवार बन चुका है। स्वाभिमान के आड़ में
अभिमान छुप कर व्यक्तित्व पर धावा बोल रहा है। बच्चों पर कैरियर बनाने का दबाव बढ़ता जा रहा है। मीडिया के सहारे बाज़ार घर में
घुस आया है। मॉल संस्कृति कमतरी के एहसास और तृष्णा को जन्म दे रही है। यही
तृष्णाएँ परिपक्व होकर कुंठा का कारण बनती है जो अपराध प्रवृत्ति का पोषक है।
पैसा कमाने की होड़ ने आदमी को मशीन बना दिया है
और मशीन बना आदमी जी खोलकर हँसना-रोना भी भूल गया है। पर्यावरण का ऐसा प्रकोप है
कि सड़कों से लेकर जानवरों के पेट तक पन्नियों ने अपना साम्राज्य बिछाया हुआ है।
अब कुर्सी, टेबल, बर्तन, गाड़ी सब में प्लास्टिक का समावेश हो गया है जो
स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के लिये खतरनाकहै। हृदय की सरलता पर प्लास्टिक मुस्कान की
परत चढ़ गयी है। परतों में छिपा मनुष्य अब रेडिएशन उगलती तकनीकों की गिरफ्त में आ
चुका है। बढ़ता पेट, घटता खेत। विलुप्त होते गाँव
और शहरों की ओर पलायन करते युवा आज का सच हैं। कई गाँव तो ऐसे हैं जहाँ सिर्फ
बूजुर्गों की ही उपस्थिति देखने को मिलती है।
ऐसे सामाजिक विघटन के वक्त में समाजिक नव चेतना, नव निर्माण के लिए, संस्कृति और संस्कार की रक्षा का दायित्व साहित्य
पर आ जाता है। युग का समसामयिक इतिहास लिखने के साथ जनमानस में नैतिक चेतना की
प्रेरणा देने का काम अब लघुकथा-साहित्य पर है।
मो.9575465147