दृष्टिकोण का बढ़ता सामर्थ्य 'पिघलती बर्फ'
दृष्टिकोण
का बढ़ता सामर्थ्य 'पिघलती
बर्फ' : कान्ता
रॉय
कथ्य रूपी
बीज का प्रस्फुटन के लिए लघुकथा की बेल को कथानक की मचान पर चढ़ाया जाता है और
अंतर्द्वंदों के खाद-पानी से सींच कर मंथर गति से अंतःकरण में चरमोत्कर्ष तक
पहुँचाना ही लघुकथा की व्यापकता है। यहाँ परिभाषित उपरोक्त व्यापकता सविता गुप्ता 'इन्द्र' की 85 लघुकथाओं का पोषण करती हुई दिखाई पड़ती
है। सविता गुप्ता 'इन्द्र' लघुकथा में सधे हुए अंदाज में एकदम से
नए प्रयोग करती हुई दिखाई देती है। वह अंतर्जाल समूह 'लघुकथा के परिंदे' की एडमिन भी हैं अतः कुशल प्रबंधनशीलता
उनकी लघुकथाओं के विन्यास में भी झलकता है। गम्भीर और मितभाषी सविता गुप्ता 'इन्द्र' लघुकथा में एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व
हैं। सधा हुआ कथ्य, सुगठित
शिल्प, संवादों
में विशिष्ट व्यवहार उनकी लघुकथा का सामर्थ्य है।
यहाँ आर्थिकता के आधार पर वर्ग भेद को लेकर उपजता रोष को उभार मिला है।
इसी तरह 'रोक-टोक' लघुकथा में रिश्तों को मक्खन-सा मुलायम होने के भाव को रोपित किया गया है। बेटे का माता के लिए जूते का सुंदर उपहार देना, बच्चों में जिम्मेदारी का एहसास, इस बात से अनजान माता-पिता को सचेत करती है।
'खडूस बॉस' जैमिनी साहित्य अकादमी द्वारा अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त विजेता लघुकथा है। यहाँ पूर्वाग्रह से ग्रसित कर्मचारी-वर्ग अपने बॉस के प्रति असंवेदनशील हो उठते हैं और जब वास्तविकता का पता लगता है तो पूर्व में खिल्ली उड़ाने वाले बड़े बाबू की आँखों में आँसू आ जाते हैं। संवेदना सृजन का आधार है, इसे भली-भांति प्रतिपादित किया गया है।
'खड़ग-खप्परधारी' में गर्भपात का विरोध करने वाली माँ का विरोध मजबूती से पेश हुआ है।
'बेटी का मतलब' एक अलग प्रकार की आधुनिक सोच की लघुकथा है। आज की लड़की अपनी बात रखते हुए, अपनी असहजता को प्रकट करने में शर्म महसूस नहीं करती है, वह बड़ी बेबाक होकर उसके साथ हुए गलत काम, गलत स्पर्श पर शोर मचा कर अपना विरोध दर्ज करती है। समाज को आईना दिखाती यह लघुकथा अपना औचित्य बता जाती है।
'पूर्वाग्रह' जातिगत टिप्पणी और आरक्षण का राहू किस तरह मानवीय सम्बन्धों पर हावी हो रहा है इसको जबरदस्त तरीके से कथ्य दिया है। इसके शिल्प में सर्जनात्मकता बरबस ध्यान खींचती है। सविता गुप्ता 'इन्द्र' आदमी होने के लगभग सभी पहलुओं पर फोकस करने में कामयाब होती प्रतीत हुई हैं।
'आज का
जटायु' इंसानी
रिश्तों व भावनाएँ गलत पर हावी होती एक गहरी विसंगति के कथ्य की व्याख्या करती है।
मानवीय मूल्यों की रक्षा करने का दायित्व मानुष को मनुष्य के रूप में स्थापित करता
है। नौकर होते हुए भी किशन मरते-मरते कथ्य को लघुकथा में जीवित रख जाता है।
'जिंदा कथानक' लेखक की पत्नी की कहानी और जिंदा कथानक पढ़ कर मुझे आश्चर्य हुआ। मैं अभिभूत हो उठी थी। जैसे-जैसे सविता गुप्ता'इन्द्र' की लघुकथाओं से गुजरती हूँ वैसे-वैसे यह अपना गहरा प्रभाव मुझ पर डालता जा रहा है। 'पुनर्जन्म' वृद्धाश्रम और वहाँ के माहौल को बड़ी मार्मिकता से रखा है। इसके अंतिम पंक्ति पढ़ कर एक ओर जहाँ हृदय वेदना से कराह उठता है वहीं दूसरी ओर जीवटता सीखने को मिलता है। "बहन, हम सब सूखे पत्ते हैं। चाहें भी तो वापस पेड़ से नहीं जुड़ सकते। जाने कब किस पत्ते को कोई तेज हवा का झोंका उड़ा ले जाए, इससे पहले, आओ जीवन का अंतिम पृष्ठ खुशी से लिखें।"
इस
मार्मिक लघुकथा में बुनी गई संवेदना मन में ऐसी खलबली मचाती है कि सुकेश साहनी की 'ठंडी रजाई' एकदम से याद आ जाती है। जब किसी रचना
को पढ़कर ऐसी अनुभूति हो तो यह उस लघुकथा के अर्थ और उसके महत्व को सशक्तता से दर्शाना होता है। हालांकि प्रस्तुत
लघुकथा में प्रयुक्त ठंडी रजाई पछतावे के सर्द रातों में जिंदगी भर सर्द ही रहेगी
क्योंकि यहाँ कथा का पात्र भिखारी ठिठुरन से मर चुका था। गलती तो हो चुकी थी और
इस चुक जाने के पछतावे में तमाम उम्र सर्द ठंडी रजाई में ही बिताने की मजबूरी थी।
जहाँ पछतावा है वहीं एक नई शुरुआत यानी नव-निर्माण भी हो सकता है यदि मनुष्य चाहे
तो!
"जज साहब, अपराध रोकने हैं तो 'जैसा किया है, वैसा भुगतो' का नया कानून बनाएं। यदि एसिड फेंकने
से पहले अारोपी को पता होगा कि यह एसिड पलट कर उसके चेहरे को भी जला सकता है, तब कोई ऐसा जुर्म करने की ज़ुर्रत नहीं
करेगा।"
'मुझे स्वीट नहीं लगना' बाल-विमर्श की लघुकथा है जिसके केंद्र में बाल यौन-शोषण जैसी मानसिक विद्रुपता पर समाज को सोचने पर विवश करती है।
'ग्रेंड
पेरेंट्स डे' बेटा और
बेटी में भेदभाव के आधार पर संकीर्णता के आवरण को उतार फेंकती, इस लघुकथा में दादी-पोती के मध्य
स्थापित संवादों की मजबूती इसे अतिश्रेष्ठ बनाती है।
"पढ़ाई का महत्व तो पता था, पर बेटी का नहीं।"
'सुविधा का
शुल्क' में रैली
के नाम पर धंधे में लगे पुलिसकर्मियों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है तो 'सरप्राईज गिफ्ट', 'लड़खड़ाती परवरिश', 'कठघरे में', 'तोल-मोल के रिश्ते', 'फॉरवर्ड लोग', 'नुस्खा', 'कीमती शो-पीस' और 'भूख' ये सभी लघुकथाएँ भिन्न-भिन्न सामाजिक
विसंगतियों को सामने रखकर समस्याओं के समाधान की ओर इशारा करते हुए यथार्थ को चरम
तक पहुँचाती
है।
'अहसान फरामोश' में शिल्पकार के दर्द को व्यक्त करने में कामयाब कोशिश की गई है।
'अंधेर', 'संवेदना का संकट', 'बातूनी', 'माँ कहाँ हो' में अलग-अलग तरीके से सम्प्रेषित जीवन की विभिन्न दशाओं का चित्रण है।
'अफवाह' दीवार से गिरी तीन ईंटों के जरिए इंसान पर कटाक्ष करने की कोशिश हुई है। इस लघुकथा की शैली में बिम्बों का इस्तेमाल प्रभावित करती है।
'धीमी सुलगती आग' पाठकों पर असर कायम करती है।
'कमली का
फैसला' गाँव की
राजनीति का आधार है। 'संवेदना
के तार' सास-बहू
के रिश्तों में मिठास को बुना गया है जो पाठक मन को अभिभूत करता है।
'कपाल-क्रिया' में बेटा पैदा करने को जीवन का उत्कर्ष मानने वाली को जब उसी बेटे के हाथ उठाते हुए कपाल क्रिया किया जाता है तो जीवन का सत्य सामने आ खड़ा होता है।कुंद सोच पर कथ्य का बेहद तीव्रता का आभास होता है इस लघुकथा में।
आपकी प्रायः सभी लघुकथाओं में, चाहे वो 'चीरहरण' हो या 'बदलती प्राथमिकताएँ', 'दिव्याँग कौन', 'टूटता सिलसिला', 'तिलिस्म', 'सौ नम्बर', 'अंदेशा', 'पश्चिम से उगता सूरज', 'एक बार फिर', 'ब्लैक होल', 'सहमा बचपन','भेड़िया', 'कंगाल', 'दुविधा', 'तुलना', 'लल्लू', 'जाल', 'अगले जन्म मोहे' इत्यादि सभी लघुकथाओं के जरिए हमें सविता गुप्ता 'इंद्र' की वैचारिक समृध्दि के अकूत होने की पुष्टि मिलती है।
2016 विश्व पुस्तक मेले में लेखक मंच पर व नुक्कड़ लघुकथा गोष्ठी में भाग लेते हुए अपनी लघुकथाओं के जरिए वरिष्ठ लघुकथाकारों का ध्यान उन्होंने अनायास ही अपनी ओर खींचा था। शिष्टता और संयमपूर्वक अपनी बात रखने की कला आपको हासिल है।
लघुकथाकार
होने के दायित्व बोध कहें या लघुकथा के लिए जुनून, कि गुरूग्राम में रहते हुए भी सविता
गुप्ता 'इन्द्र' दिल्ली में होने वाली प्रायः सभी
लघुकथा-गोष्ठियों में शिरकत करती हैं। आप लघुकथा विमर्श के तहत तार्किकता के साथ
एक सशक्त समीक्षक की भूमिका में अपनी बात रखती भी नजर आती हैं।
फोन- 9575465147
ई-मेल - roy.kanta69@gmail.com