ऐसी कृतियाँ अलख जगाने का काम करती है
ऐसी
कृतियाँ अलख जगाने का काम करती है : कान्ता रॉय
समंदर प्राण अकुलाया! : रविन्द्र भट्ट
हिन्दी
अनुवाद: डॉ. प्रतिभा गुर्जर
प्रकाशन:
स्वराज संस्थान संचालनालय, संस्कृति
विभाग, मध्यप्रदेश
शासन
पुस्तक
समीक्षा: कान्ता रॉय
वर्तमान
समय में चारों तरफ जब माहौल दुषित होकर भ्रष्ट हो रहा है ऐसे वक्त में ऐसी कृतियाँ
अलख जगाने का काम करती है। मराठी भाषा में लिखी गयी इस क्रांतिपर्व की इस गाथा को
हिन्दी रूपान्तर कर डॉ. प्रतिभा गुर्जर ने हिन्दी साहित्य को समृद्धि दी है इस बात
में जरा भी दो राय नहीं।
अनुभव और
यथार्थ के धरातल पर रचि गयी यह उपन्यास विनायक दामोदर सावरकर के कवि मन संग्राम को
चित्रित करता है।
14-15 साल के
युवक का "भारत के स्वातंत्र्य के लिए मारते-मारते मरने तक जुझूँगा।"
जैसी शपथ लेने को जिस सम्प्रेषनीयता से उभारा गया है, पढ़कर हृदय में हुँकार भर देता
है। अन्याय के विरूद्ध मन ललकार से भर जाता है।
शब्दों
में ऐसी क्षमता कि विचारों में फूँक डालने के काबिल कृति है।
यहाँ शब्द
समिघा में उपन्यास के रचयिता रविन्द्र भट्ट वीर सावरकर जी द्वारा समाज-ऋण की
बात करते हैं, समाज को
लौटाने, देकर जाने
की बात कहते हैं
रविन्द्र
भट्ट को लगता है कि वीर सावरकर के चरित्र में समाज के लिए नव संचार का बीज निहित
है इसलिये वह सब अर्थों से, सर्वांग
से युक्त उस देशभक्त से सबकी पहचान करवाना चाहते थे।
आतंकवाद, अनाचार, आसक्ति, अभिलाषा, अमानुषिकता पर विजय प्राप्त करने के
उद्देश्य से वैचारिक क्राँति का अलख जगाना ही वीर सावरकर की गाथा सृजित है।
नई पीढ़ी
को प्रेरणा देना लेखन का उद्देश्य है क्योंकि रविन्द्र भट्ट संस्कारवान कवि हैं।
अतः उन पर भी वीर सावरकर के संस्कारों की छाया रही होगी, ऐसा पुस्तक पढ़ते हुए प्रतीत हुआ है।
परिस्कृत चेतना, धैर्य, वैज्ञानिक व युक्तिवादी चिंतन पुस्तक
की आधारशिला है कृति इस बात को प्रमाणित करती है।
इस उपन्यास की स्त्री पात्र चाहे आई हो, या येसूवहिनी या यमुना, सभी क्राँतिवीरों की पत्नियाँ संस्कार, साहस, बलिदान और धैर्य की प्रतिमूर्ती हैं। येसूवहिनी से हमउम्र होने की वजह से अंतरंग रिश्ते को भाभी रूपी माँ-बहन की समृद्ध ताना-बाना रचती है। यमुना का चिरप्रतिक्षारत तत्पर रहना, कालेपानी की सजा प्रसंग में खूब उभरकर आया है।
वीर सावरकर के सम्मोहन को लिखते हुए वह ऐसा बिम्ब रचते हैं जैसे, "भावनाओं का ज्वार थमता नहीं, जन समुदाय को मंत्रमुग्ध करने वाली उनकी चेतनता से भरी आवाहन को सुनने के लिए भीड़ लग जाती थी।" पाठक मन पढ़ते हुए फ्रीज़ हो जाता है उस कालखंड में।
वा. रा.
कान्त जी ने सही कहा है कि, "जब तक एक
भी विरही जीव संसार में रहेगा तब तक यह काव्य जीवित रहेगा।"
जैसा कि
यह क्राँतिगाथा है, यहाँ देश
की मिट्टी का महत्व सर्वोपरि है।
उपन्यास
जेल की काली कोठरी से शुरू होती है जहाँ का विवरण हृदय विदारक है।
आजन्म
कारावास, कालापानी
की सजा मानसिक विचलन का कारण बनता है।
1883 के इस काल
में वीर सावरकर के धरती पर सुगबुगाते पैर पड़ने में क्रान्ति के स्वप्न का बीज
निहित है।
कई एक
जगहों जहाँ अण्णा, बाबा का
जिक्र किया गया है संवेदनाओं का उद्दात रूप दृष्टिगोचर होता है।
आई के
जाने का बिछोह इन शब्दों में तीव्र हो उठता है कि, " तीन दिन लगातार दिया जलता रहा पर
अँधेरे की तीव्रता कम न हुई।"
शादी-व्याह
के सहज मिठास लिए सामाजिक व्यवहार, संस्कार, उल्लास को भी आदर्श तरीके से रोपित
किया गया है।
पूणे, नासिक, भगुर की मिट्टी की केसरिया सुगंध
पुस्तक के हर एक पंक्ति में सुगंधित है।
लोकमान्य
तिलक जी की गिरफ्तारी और फाँसी से पहले
दामोदर
पंत का तिलक जी से मिलने का प्रसंग वीर सावरकर के जीवन में नया संग्राम फूँक रहा
था।
चाफेकर
बंधुओं का फाँसी पर झूलना कैशोर्य मन पर मनोवैज्ञानिक रूप से चिन्ह खींचता है
जिसके फलस्वरूप वे रात भर जागकर अपने रोष के प्रतिफल में चाफेकर का फटका यानि गीत
रच डालते हैं और यहीं पर वे पूजाघर में देवी के सामने अपने कैशोरावस्था में ही
देवी माँ के सामने शपथ लेते हैं।
प्लेग का
प्रकोप में ग्रामीण परिवेश , असहाय अवस्था में पिता, पितृतुल्य काका को खोना। पैतृक निवास का त्याग, परिवेश से बिछोह की पीड़ा और वीर
सावरकर जी का कवि मन, भावनाओं
को ऐसे बुना है लेखक ने कि पूरा कालखंड जीवित हो उठा।
ऐसा
सम्मोहन जोड़ा है, पन्ने दर
पन्ने पलटते गए, निरन्तरता
से एक युग को जीते गए।
यह वीरों
का स्वर्णकाल था।
पौरूष के
महाकाव्य रचने का वह युग सावरकर को वीर सावरकर बना गया।
बलिदान की
कामना कर्म के फल की एकमात्र कामना थी।
तिलभांडेश्वर
संग्रामिक उस पौध को पल्लवित होने का कारण बना। वीर सावरकर जी का लेखन और स्वतंत्रता
के ध्येय को सिद्ध करने के लिए वृत्ति मिली।
तिलक का
तेज ध्येय को क्षितिज की ऊँचाई दे दी।
क्राँतिगाथा
पर्व पढ़ते हुए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय युवाओं में संघर्ष क्षमता
जगाने व बढ़ाने का कारण बनेगी ऐसा प्रतीत हुआ है।
छात्रावास
में रहते हुए 'सावरकर
क्लब' के जरिए
एक मंडल की स्थापना कर उसके द्वारा प्रत्यक्ष में स्वातंत्र्य कार्य का उद्घोष
स्वतंत्र भारत माता लक्ष्य था।
बिना
संगठित हुए किसी भी लड़ाई को जीतना असम्भव है और वीर सावरकर जी इस तरह अपनी पूरी
मंडली के साथ संगठित हुए।
यहाँ पुणे
की महत्ता चरितार्थ हो उठती है।
गणेश
उत्सव हो या शिवजयंती, ऐसे
सामाजिक पर्व को किस तरह देशभक्त जागरूकता से क्राँतिपर्व के लिए परिवर्तित करते
रहें हैं इसका उल्लेख रविन्द्र भट्ट जी ने पूरी व्यवहारिकता से किया है।
सावरकर
क्लब की बैठकें, सम्मेलनों
का सत्र, नाटकों की
महत्ता, समस्त
प्रभावी कल्पनाएँ जो जमीनी रूप से समाज में प्रचारक का काम किया को विस्तार पूर्वक
बताया है।
तानाजी
मालुसरे जी की शौर्य गाथा सहित कई पात्रों से यह उपन्यास परिचित करवाती है।
'केसरी' और 'काल' के सानिध्य में स्वतंत्रता का आवाहन
केन्द्र में था।
अंततः
राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मुख्य प्रेरणा आरोपी का कालेपानी की सजा मन
में उद्वेग को प्रवाहित करती है
"स्वातंत्रयलक्ष्मी
की जय! वन्दे मातरम!"
"दो भाई दो, इतना बड़ा देश होकर भी मेरा कहने की जहाँ चोरी है, वहाँ इतनी छोटी-छोटी चीजों पर मेरा अधिकार भला कैसे होगा? मैंने निर्विकार भाव से सरकारी सामग्री का माल स्वीकार किया पर इसके साथ मुझे एक हलाहल और पचाना था। कैदी क्रमांक और छूटने के दिनांक का बिल्ला मुझे हमेशा गले में पहनना था।" काली ध्वजा को पहनने की विवशता यहाँ मार्मिकता से पेश हुआ है। प्रतिज्ञा के प्रति समर्पण और हृदय की अटलता कृति के मूल में है। जीवटता की प्रतिमूर्ति को रविन्द्र भट्ट ने मानों अपनी कलम से साक्षात कर दिया है।1910 से कालेपानी की उस सजा की शुरूआत का चित्र बड़ा ही दारूण है।
सजा के
बाद जेल में मिलने आई पत्नी के धीरज बँधाते शुष्क आँखों को पढ़कर बिना विचलित हुए
वह कह उठते हैं कि, "यमुना, बच्चों की संख्या बढ़ाना, चार
बाँस इकट्ठे कर घरौंदा बनाना, यदि इसे ही संसार करना कहती तो ऐसा संसार कौए, चिड़िया भी करते हैं, पर संसार का इससे भव्यतर अर्थ होता है तो आदमी के रूप में हम संसार सजा कर कृतकृत्य हो गए।" एक खास किस्म की संजीदगी उभरकर आती है।
अंडमान की
पहली भयानक रात में मानस पटल पर 'कमला' की
पंक्तियों को रचना, पढ़ते हुए
पाठक-मन के बदन में भी फुरफुरी-सी जगा जाता है। कवि का हृदय कठोर अवस्था में भी
कैसे कोमल भावों को जीता है इसकी बानगी है वीर सावरकर की जीवनी। संघर्षशील व्यक्ति
जहाँ रहता है वहीं अपना नव स्थापना कर लेता है। कालेपानी की सजा भोगते कैदियों की
दूर्व्यवस्था पर वहाँ भी संगठित कर कैदियों के साथ विद्रोह का स्वर मुखर करते हैं
जिसके फलस्वरूप शिक्षा से महीने की छुट्टी संग अन्य सुविधाओं का लाभ मिलता है।
पूरे
उपन्यास में सम्प्रेषण स्तर बेहतर है। सरलता से वीर सावरकर के भव्य व्यक्तित्व को
प्रभावशाली करता हुआ यह पुस्तक भारत की गौरवशाली गाथाओं में शुमार करने योग्य है।
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